पीएमआरडीए क्षेत्र में एक दशक में 10,000 अवैध निर्माण, प्रशासन की भूमिका पर सवाल

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पुणे। पुणे और पिंपरी-चिंचवड़ नगर निगम क्षेत्रों को छोड़कर शेष पुणे जिले के समग्र विकास के लिए पुणे महानगर क्षेत्र विकास प्राधिकरण (पीएमआरडीए) की स्थापना की गई थी। यह प्राधिकरण 7,256.46 वर्ग किमी क्षेत्र में कार्यरत है, जिसकी अनुमानित जनसंख्या 75 लाख है। यह महाराष्ट्र का सबसे बड़ा महानगर प्राधिकरण है। पीएमआरडीए को इस क्षेत्र की भूमि का सर्वेक्षण कर विकास योजना लागू करने की जिम्मेदारी दी गई है।

हालांकि इतने बड़े क्षेत्र की निगरानी के लिए पर्याप्त स्टाफ की कमी की शिकायतें होती रही हैं, लेकिन राज्य सरकार के लिए यह प्राधिकरण “दुधारू गाय” साबित हुआ है। इसके बावजूद, पिछले एक दशक में पीएमआरडीए क्षेत्र में लगभग 10,000 अवैध निर्माणों का खुलासा हुआ है।

क्या है प्रशासन की भूमिका?
इतने बड़े पैमाने पर अवैध निर्माण होने के बावजूद प्राधिकरण की निष्क्रियता पर सवाल खड़े हो रहे हैं। इसका जवाब राजनीति से जुड़ा है। महानगर सीमा के पांच किमी के भीतर जलापूर्ति की जिम्मेदारी नगर निगम की है, लेकिन कई क्षेत्रों में अब भी पर्याप्त पानी की आपूर्ति नहीं हो रही है। इस स्थिति में टैंकरों पर निर्भर लोग और बढ़ते अवैध निर्माण हालात को और खराब कर रहे हैं।

अवैध निर्माण को क्यों मिलता है संरक्षण?
अवैध निर्माणों के पीछे राजनीतिक संरक्षण एक प्रमुख कारण है। पहले संस्थाओं के जरिए राजनीति में प्रवेश किया जाता था, लेकिन अब राजनेता सीधे या परोक्ष रूप से बिल्डर बनना अधिक लाभकारी मानते हैं। अवैध निर्माण के जरिए त्वरित धन अर्जित करने की प्रवृत्ति के चलते पीएमआरडीए सीमा में, खासकर नगर निगम सीमाओं के आसपास, अवैध निर्माणों का अंबार लग गया है।

कार्रवाई की घोषणा, लेकिन परिणाम संदेहास्पद
पीएमआरडीए ने अवैध निर्माणों पर कार्रवाई करने और एक महीने का समय देकर इन्हें स्वयं तोड़ने की चेतावनी दी है। लेकिन विधानसभा चुनावों के हालिया नतीजों के बाद किसी ठोस कार्रवाई की उम्मीद कम ही है। संभव है कि मामूली जुर्माना लगाकर इन निर्माणों को वैध कर दिया जाए। अंत में, बिल्डरों का जुर्माना भी नागरिकों पर भारी पड़ेगा।

विकास के दावों पर प्रश्नचिन्ह
अवैध निर्माणों और प्रशासनिक उदासीनता के कारण शहरों के विकास की गति धीमी हो रही है। नागरिकों की समस्याओं को दूर करने के बजाय, उनके साथ केवल चुनावी वादों तक ही सहानुभूति दिखाई जाती है। इस परिस्थिति में शहरों के समग्र विकास का दावा करना एक मजाक से अधिक कुछ नहीं लगता।

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